मंगलवार, 27 नवंबर 2007

मीडिया और शोषण

बहुत सोचने विचारने के बाद अपनी पसंद नापसंद को परखने के बाद, हमने मीडिया को चुना था. घर वालो का विरोध सहा,उनसे कहने के लिये कुछ नही था कि हमारा भविष्य क्या होगा? अब दिल्ली जैसे शहर मे भले ही पत्रकारिता का रंग चटख हो.लेकिन हमारे यहा कानपुर की तरफ़ पत्रकार की पहचान झोला छाप,बाटा चप्पल धारक और मोटे फ़ेम के चश्मे वाले आदरणीय परंतु निरर्थक पुरुष की ही थी.खैर हमने फ़ैसला किया और आ गये सब टीम टाम लेकर. तीन साल का कोर्स किया और हो गये ग्रेजुएट-इन-जर्नलिज्म .

तीन साल के अनुभव तो बहुत रहे पर पता नही क्यु वहा सभी को इतना रोते बिलखते पाया. अभी जुम्मा चुम्मा ७-८ महीने ही हुये होगे की इंटर्न्शिप का हल्ला कानो को बहरा करने लगा.जिसे देखो भागा जा रहा है.ढूढ रहा ह कि मेरे मामा के भतीजे या भैया के दोस्त कहा काम कर रहे है. कितनी जल्दी उन्हे बता दे की हम भी आ रहे है . हमारा कुछ करिये. हमने ज्यादा ध्यान नही दिया. और पाया कि साल खत्म होते होते जब हम अपने सेलेबस पर चर्चा कर रहे थे कि ये ऐसा होना चहिये वैसा होन चाहिये . कुछ लोग इन सब से दूर अपने लिये जुगाड का इंतजाम कर रहे थे.होना क्या था उन्हे आखिर इंटर्नशिप मिल गयी.

दूसरा सत्र शुरू हुआ तो पाया कि उन चेहरो मे अजीब सी चमक बढ गयी है जिन्होने आखिरकार साल खत्म होते होते अपने जान पहचान मे मीडिया मे 'इंट्री'दिला सकने वाले र्रिश्ते तलाश लिये थे. और उनका प्रयोग भी कर लिया था. ये खबर आग की तरह फ़ैली. कि पता है पिछ्ली छुट्टियो मे उसने वहा काम किया.उसने वहा . उसके भैया तो वे है ये है फ़ला जगह के चीफ़ है. उसका 'जुगाड'तो फ़िट है.अब भई पहली बार हमे पता चला कि करेले को देख्कर करेला भी कैसे रंग बदलता है. मुश्किल से ४० लोग जुट्ते थे पढाई के लिये . अब तो भगदड मच गयी ४० के आधे रह गये उन्मे से भी कई बस इस्लिये क्योकि अभी तक ऎसा कोइ जुगाड वे ढूढ नही पाये थे.एक हमारे जैसे कुछ लोग थे जो यही सोच रहे थे कि यार अभी तो आधा कोर्स भी नही हुआ. सीखा ही कितना है. ईलेकट्रानिक तो अभी छुआ ही नही फ़िर भला किसी से कैसे कह दे कि भाई हमे काम दे दो. अभी तो आधे ग्यान से अंजान है किसीने बोला कि बनाओ इस खबर का एंकर पैकेज तो हम तो बोल जायेगे.

जब उन दोस्तो से कहा तो जवाब मिला कि अरे कोर्स वोर्स काम नही आयेगा ..ये प्रेक्टिकल फ़ील्ड है .किताबो से कुछ नही होगा. उनकी बाते हमे भी सही लगी जब देखा कि कई बार हमारे टीचरगण भी इन वाक्यो कि पुनराव्रत्ति कर रहे है. दिल मे सवाल तो कई उठे मसलन अगर ऐसा ही है तो जो सालो से किताबो की खाक छानकर चीजे एक जगह इकठ्ठी कर हमारे लिये तीन साल का कोर्स डिजाइन करते है वे क्या निरे नासमझ है ? क्या उन्हे नही पता कि ये सब बकवास है.उन्हे तो बस ये पढाना चहिये कि मीडिया मे जुगाड कैसे तलाशे ? इंटरनशिप पाने के अचूक नुस्खे . मखनबाजी मे शार्ट टर्म ट्रेनिग ...इत्यादि. यकीनन इनसे सब का कितना भला होता . और तब मीडिया के कोर्स को बनाने वाले को इतनी गालियां भी ना सुननी पडती.

खैर दूसरा साल गुजरा. हम्ने पाया कि भाई हम ही बचे है जो अभी भी पन्नो और असांइंमेटो मे ही अपनी कलम और मैटेरियल के लिये किताबो ,इंटरनेट मे झक मार रहे है.और खुश है कि सर से A+ मिला . नही मिला तो क्यु नही मिला कहा क्या कमी रह गयी.बात पते कि एक और बता दे जब सभी अपना रिज्युमे अपडेट कर रहे थे. हम बस यही सोच रहे थे कि क्या हम भी इन सब को छोडकर रिज्युम करे या 'रुको मत भागो'वाली कहावत पर चले. कुल मिलाकर हमने भी अपने पैर किताबो और कालेज की चारदीवारी से बाहर निकाल लिये और कूद पडे. चक्कर लगाने शुरू किये नया नया जोश था पहली बार बडे बडे मीडिया हाउस देखने का मौका मिला. बडी मेहनत से रिज्युम तैयार किये. सब लिखा यहा ये जीता वहा ये किया. मौका मिला तो और भी बेहतर करेगे. दफ़्तरो मे गये और रिज्युम दे दिया. वैसे रिज्युम ज्यादातर जगहो मे गेट के बाहर ही रखवा लिये गये. थोडा बुरा तो लगा पर क्या करते बिन जुगाड सब सून कबीरा . जो था जैसा था स्वीकार कर लिया.

काफ़ी अरसा हुआ जवाब ही नही आया कही से .कोइ रिस्पास ही नही. बहुत बुरा लगा.लगा कि सच है यार हम बस अपनी तुरर्म्खानी मे ही उडते रह गये.हुआ कुछ नही. हमारे A+ ग्रेड किसी काम नही आये. एक बार तो मन बहुत खट्टा हुआ लगा कि यार क्या किया अपने ही पैरो मे कुल्हाडी मार ली. और कही होते इतना करते तो लोग बुला बुला के काम देते . यहा तो बस एक मौका भी नही मिल रहा.वो भी जब सब कुछ फ़्री मे ही होना तब ये हाल है.पर कब तक रोना रोते . हकीकत यही थी कि हम थे बिना जुगाड के.और अचानक से जुगाड को पैदा तो कर नही सकते थे.तो मन को ढांढस बंधाया कि और पढेगे और इसी को अपना जुगाड बनायेगे.और फ़िर क्या लग गये दूने जोश के साथ.

पता नही क्या था? हमने ऐसा क्या किया था कि सहारा परिवार को हम पर दया आयी और आखिरकार 'इंटर्न्शिप नामक वर्जित फ़ल' का स्वाद हमे भी चखने को मिला.मजा आया सच मे पहली बार प्रेक्टिकली काम किया जितना आता था सब झोंक दिया. और जब वक्त खत्म होने पर कहा गया तुम काम अच्छा करते हो. और भाषा पर पकड भी अच्छी है बस लगा कि इतनी पढाइ काम आ गयी. आखिर ये सब इसीलिये तो किया था.भाई सीना फ़ूल के चौडा हो गया.आखिरी सेमस्टर आया तो अपना पसंदीदा विषय साहित्य चुना.आर्ट एंड कल्चर के पूरे ६ महीने पढाई की . और सिनेमा को स्पेशल पेपर लिया. प्रोजेक्ट बनाया . और सबको पसंद आया.

तीन साल पूरे हुये . अब पूरी तरह से मैदान मे थे.ये करेगे वो करेगे कितनी अरमान दिलो दिमाग मे थे.लेकिन भाई अब ह्कीकत से सामना हुआ. रिज्युम फ़ोटोकापी करा करा के थक गये लेकिन कही बात नही बनी. जहा भी जाओ या तो एक्स्पीरियंस या फ़िर जुगाड. अब हमने तो कम किया था कम और ज्यादा फ़ोकस किया पढाइ पे. अब एक बार ही तो पढना था.और बचपन से सुनते आ रहे थे कि पढाइ कभी बेकार नहे जाती सो विश्वास था कि एक मौका मिलेगा और बस हम खुद को साबित कर देगे आखिर काम तो हम सीख जायेगे ही, क्योकि आये ही इसलिये है लेकिन जिन्होने सिर्फ़ काम सीखा है उनसे एक कदम तो आगे रहेगे ही.लेकिन जब मौका मिला तो दंग रह गये.....continue...

1 टिप्पणी:

Sanjay Karere ने कहा…

अब दूसरी किश्‍त भी आज ही लिख दो सो पता चल जाए कि किस बात की भूमिका बना रहे हो. और पत्रकारिता सीखते समय क्‍या किसी ने यह नहीं बताया कि कम शब्‍दों में भी अपनी बात प्रभावी तरीके से कहना जरूरी होता है?