मंगलवार, 4 दिसंबर 2007

मीडिया और शोषण - PART 2

अब बढते हैं आगे कि आखिर ऐसा क्या हुआ जो हम दंग रह गये. मीडिया क्या है ? उसका क्या काम है ?क्या तौर तरीके हैं ? इन सबके बारे मे यु तो कालेज मे ही काफ़ी पता चल गया था. इसलिये इस बात कि तो हमने कोइ उम्मीद ही नही कि थी कि जते ही हमे हमारी पसंद की चीज दे दी जायेगी. बस यही था कि जो भी मिलेगा उसे जीजान से करेगें. और सथ मे आस्पास के माहौल को देखेगे जानेगे.सो हम्ने वही किया.रनडाउन दिया गया हफ़्ते भर मे सीख लिया.अब क्या नयी मशीन आयी थी वास्प 3D . अब भाई इंटर्न होने के नाते हमे ही सीखनी थी सो हमने सीख ली.हा ये और बात है कि हमारी कंप्युटर मे जो रुचि बचपन से थी उसने हमारी मदद की. और पिछ्ले कै सालो से घर मे इस य़ंत्र की जीभर कर जो चीड फ़ाड की थी उसके चलते इसकी रग रग से वकिफ़ थे.

कुल मिलाकर हमने सीख लिया. और बस लग गये काम मे नया काम था मन लगाकर लिया.और करते गये.फ़िर एक दिन ध्यान आया कि यार कर क्या रहे हैं ऐसे तो कोइ पूछ ही नहे रहा है कि और भी कुछ करना है कि नही. आखिर कब तक खबरे ब्रेक करते रहेगे. इस दौरान बाकी लोगो से मिलने का मौका मिला उनका काम देखने को मिला.और फ़िर लगा कि यार अगर हमे मौका मिला तो इनसे तो बेहतर ही करेगे.किसी की बुराइ नही कर रहा लेकिन हा कभी कभी अफ़सोस भी हुआ कुछ लोगो को देख्कर जिन्हे हिंदी भी ढंग से नही आती वे लोग भी हमसे बेहतर काम कर रहे थे. और यह सब देख्कर हम पहले तो इस उम्मीद मे थे कि आज नही कल हमे भी अपना हुनर दिखाने का मौका मिलेगा.पर नही २ महीने बाद पता चला आप्को इसी सीट पर फ़िक्स किया जा रहा है क्योकि आप काम ठीक कर रहे हैं.

ये लो .. अब इसका क्या मतलब हुआ.हम काम कर रहे हैं क्योकि हमे दिया गया वो हमारी जिम्मेदारी थी .हमने पूरी की.लेकिन ये क्या कि जो हम चाहते है उसके बारे मे एक बार पूछा भी नही गया.आप १० घंते काम कराते हो ठीक है पर इसका मतलब ये नही की आप जो चाहो सिर्फ़ वही हम करे.फ़िर पिछ्ले तीन साल से जो झक मार रहे थे उसका क्या? जो इतना स्पेस्लाइजेशन किया वो तो गया बिन में. हद तो तब हो गयी जब अपने ही हेड से अपनी बात कहने गये तो जवाब मिला . इस तरह बात नहे करते कि मेरा काम बदल दो अन्यथा मै आप्का संस्थान छोड्ना चाहुगा.भाई हम तो सीरियस थे . और जो दिल मे था बडे ही स्पष्ट शब्दो मे आप से कह दिया.आप भी एक शब्द मे कह देते हा या ना. पर आप कुर्सी पर है इस्लिये होथो पर उगली रख्कर कह सकते है कि १ हफ़्ते बाद आना तब बात करेगे.

आखिर क्यु ? एक तो पिछ्ले २ महीने से जो भी काम दिया गया हमने उसे अच्छे से किया. आप्को कभी भी उगले उठाने का मौका नही दिया. और आज जब आपसे कुछ कहना चाहा तो एक हफ़्ते बाद आना. वाह रे मीडिया पुरुष. तुम मुझे उस सीट पर जाब देने को तैयार जो लेकिन मेरा काम नही बदलोगे क्योकि इससे तुम्हारे सम्मान को ठोकर लगती है कि मै तुम्हातरे दिए काम को अस्वीकार कैसे कर सकत हु. और मै जो तुम्हे अश्सावसन देता हू कि मुझे मेरे मन का काम दो मै तुम्हारे बाकी लोगो से बेहतर करके दिखाउगा तो तुम्हे वह स्वीकार नही. क्योकि मीडिया मे 'तुम जाओगे तो हजारो पडे है ' इसलिये सिर्फ़ तुम बोलोगे और हजारो लोग सिर्फ़ सुनेगे.

फ़्रीडम आफ़ एक्स्प्रेशन के नाम पर हमने मीडिया मे कदम रखा था यहा तो हमारी ही एक्स्प्रेशन को ही लकवा मार गया. आप जानते क्या हो अभी हमारे बारे मे इंटर्न ही तो है उन्हे मौका तो दो खुद को साबित करने का. मैने तो खुद को साबित करना चाहा जो आपने दिया मैने किया अब जो मै चाहता हू वो मुझे मिलना चाहिये. सच तो यही कहता है लेकिन यहा तो बात हे निराली है चुकि आप अभी नये हैं इसलिये भले ही कितना अच्छा काम करे आप को काम नही मिलेगा. बात यहे खत्म नही होती. कुछ चीजे और भी है जिन्हे मीडिया मे उतरने से पहले मैने सुना था उन्से भी इस दौरान रूबरू होने का मौका मिला. वो हम बात करेगे अगली बार..continue

मंगलवार, 27 नवंबर 2007

मीडिया और शोषण

बहुत सोचने विचारने के बाद अपनी पसंद नापसंद को परखने के बाद, हमने मीडिया को चुना था. घर वालो का विरोध सहा,उनसे कहने के लिये कुछ नही था कि हमारा भविष्य क्या होगा? अब दिल्ली जैसे शहर मे भले ही पत्रकारिता का रंग चटख हो.लेकिन हमारे यहा कानपुर की तरफ़ पत्रकार की पहचान झोला छाप,बाटा चप्पल धारक और मोटे फ़ेम के चश्मे वाले आदरणीय परंतु निरर्थक पुरुष की ही थी.खैर हमने फ़ैसला किया और आ गये सब टीम टाम लेकर. तीन साल का कोर्स किया और हो गये ग्रेजुएट-इन-जर्नलिज्म .

तीन साल के अनुभव तो बहुत रहे पर पता नही क्यु वहा सभी को इतना रोते बिलखते पाया. अभी जुम्मा चुम्मा ७-८ महीने ही हुये होगे की इंटर्न्शिप का हल्ला कानो को बहरा करने लगा.जिसे देखो भागा जा रहा है.ढूढ रहा ह कि मेरे मामा के भतीजे या भैया के दोस्त कहा काम कर रहे है. कितनी जल्दी उन्हे बता दे की हम भी आ रहे है . हमारा कुछ करिये. हमने ज्यादा ध्यान नही दिया. और पाया कि साल खत्म होते होते जब हम अपने सेलेबस पर चर्चा कर रहे थे कि ये ऐसा होना चहिये वैसा होन चाहिये . कुछ लोग इन सब से दूर अपने लिये जुगाड का इंतजाम कर रहे थे.होना क्या था उन्हे आखिर इंटर्नशिप मिल गयी.

दूसरा सत्र शुरू हुआ तो पाया कि उन चेहरो मे अजीब सी चमक बढ गयी है जिन्होने आखिरकार साल खत्म होते होते अपने जान पहचान मे मीडिया मे 'इंट्री'दिला सकने वाले र्रिश्ते तलाश लिये थे. और उनका प्रयोग भी कर लिया था. ये खबर आग की तरह फ़ैली. कि पता है पिछ्ली छुट्टियो मे उसने वहा काम किया.उसने वहा . उसके भैया तो वे है ये है फ़ला जगह के चीफ़ है. उसका 'जुगाड'तो फ़िट है.अब भई पहली बार हमे पता चला कि करेले को देख्कर करेला भी कैसे रंग बदलता है. मुश्किल से ४० लोग जुट्ते थे पढाई के लिये . अब तो भगदड मच गयी ४० के आधे रह गये उन्मे से भी कई बस इस्लिये क्योकि अभी तक ऎसा कोइ जुगाड वे ढूढ नही पाये थे.एक हमारे जैसे कुछ लोग थे जो यही सोच रहे थे कि यार अभी तो आधा कोर्स भी नही हुआ. सीखा ही कितना है. ईलेकट्रानिक तो अभी छुआ ही नही फ़िर भला किसी से कैसे कह दे कि भाई हमे काम दे दो. अभी तो आधे ग्यान से अंजान है किसीने बोला कि बनाओ इस खबर का एंकर पैकेज तो हम तो बोल जायेगे.

जब उन दोस्तो से कहा तो जवाब मिला कि अरे कोर्स वोर्स काम नही आयेगा ..ये प्रेक्टिकल फ़ील्ड है .किताबो से कुछ नही होगा. उनकी बाते हमे भी सही लगी जब देखा कि कई बार हमारे टीचरगण भी इन वाक्यो कि पुनराव्रत्ति कर रहे है. दिल मे सवाल तो कई उठे मसलन अगर ऐसा ही है तो जो सालो से किताबो की खाक छानकर चीजे एक जगह इकठ्ठी कर हमारे लिये तीन साल का कोर्स डिजाइन करते है वे क्या निरे नासमझ है ? क्या उन्हे नही पता कि ये सब बकवास है.उन्हे तो बस ये पढाना चहिये कि मीडिया मे जुगाड कैसे तलाशे ? इंटरनशिप पाने के अचूक नुस्खे . मखनबाजी मे शार्ट टर्म ट्रेनिग ...इत्यादि. यकीनन इनसे सब का कितना भला होता . और तब मीडिया के कोर्स को बनाने वाले को इतनी गालियां भी ना सुननी पडती.

खैर दूसरा साल गुजरा. हम्ने पाया कि भाई हम ही बचे है जो अभी भी पन्नो और असांइंमेटो मे ही अपनी कलम और मैटेरियल के लिये किताबो ,इंटरनेट मे झक मार रहे है.और खुश है कि सर से A+ मिला . नही मिला तो क्यु नही मिला कहा क्या कमी रह गयी.बात पते कि एक और बता दे जब सभी अपना रिज्युमे अपडेट कर रहे थे. हम बस यही सोच रहे थे कि क्या हम भी इन सब को छोडकर रिज्युम करे या 'रुको मत भागो'वाली कहावत पर चले. कुल मिलाकर हमने भी अपने पैर किताबो और कालेज की चारदीवारी से बाहर निकाल लिये और कूद पडे. चक्कर लगाने शुरू किये नया नया जोश था पहली बार बडे बडे मीडिया हाउस देखने का मौका मिला. बडी मेहनत से रिज्युम तैयार किये. सब लिखा यहा ये जीता वहा ये किया. मौका मिला तो और भी बेहतर करेगे. दफ़्तरो मे गये और रिज्युम दे दिया. वैसे रिज्युम ज्यादातर जगहो मे गेट के बाहर ही रखवा लिये गये. थोडा बुरा तो लगा पर क्या करते बिन जुगाड सब सून कबीरा . जो था जैसा था स्वीकार कर लिया.

काफ़ी अरसा हुआ जवाब ही नही आया कही से .कोइ रिस्पास ही नही. बहुत बुरा लगा.लगा कि सच है यार हम बस अपनी तुरर्म्खानी मे ही उडते रह गये.हुआ कुछ नही. हमारे A+ ग्रेड किसी काम नही आये. एक बार तो मन बहुत खट्टा हुआ लगा कि यार क्या किया अपने ही पैरो मे कुल्हाडी मार ली. और कही होते इतना करते तो लोग बुला बुला के काम देते . यहा तो बस एक मौका भी नही मिल रहा.वो भी जब सब कुछ फ़्री मे ही होना तब ये हाल है.पर कब तक रोना रोते . हकीकत यही थी कि हम थे बिना जुगाड के.और अचानक से जुगाड को पैदा तो कर नही सकते थे.तो मन को ढांढस बंधाया कि और पढेगे और इसी को अपना जुगाड बनायेगे.और फ़िर क्या लग गये दूने जोश के साथ.

पता नही क्या था? हमने ऐसा क्या किया था कि सहारा परिवार को हम पर दया आयी और आखिरकार 'इंटर्न्शिप नामक वर्जित फ़ल' का स्वाद हमे भी चखने को मिला.मजा आया सच मे पहली बार प्रेक्टिकली काम किया जितना आता था सब झोंक दिया. और जब वक्त खत्म होने पर कहा गया तुम काम अच्छा करते हो. और भाषा पर पकड भी अच्छी है बस लगा कि इतनी पढाइ काम आ गयी. आखिर ये सब इसीलिये तो किया था.भाई सीना फ़ूल के चौडा हो गया.आखिरी सेमस्टर आया तो अपना पसंदीदा विषय साहित्य चुना.आर्ट एंड कल्चर के पूरे ६ महीने पढाई की . और सिनेमा को स्पेशल पेपर लिया. प्रोजेक्ट बनाया . और सबको पसंद आया.

तीन साल पूरे हुये . अब पूरी तरह से मैदान मे थे.ये करेगे वो करेगे कितनी अरमान दिलो दिमाग मे थे.लेकिन भाई अब ह्कीकत से सामना हुआ. रिज्युम फ़ोटोकापी करा करा के थक गये लेकिन कही बात नही बनी. जहा भी जाओ या तो एक्स्पीरियंस या फ़िर जुगाड. अब हमने तो कम किया था कम और ज्यादा फ़ोकस किया पढाइ पे. अब एक बार ही तो पढना था.और बचपन से सुनते आ रहे थे कि पढाइ कभी बेकार नहे जाती सो विश्वास था कि एक मौका मिलेगा और बस हम खुद को साबित कर देगे आखिर काम तो हम सीख जायेगे ही, क्योकि आये ही इसलिये है लेकिन जिन्होने सिर्फ़ काम सीखा है उनसे एक कदम तो आगे रहेगे ही.लेकिन जब मौका मिला तो दंग रह गये.....continue...

शुक्रवार, 23 नवंबर 2007

उपहार कांड - इंसाफ़ मिला ??

२३ जून १९९७ को जेपी दत्ता की फ़िल्म बार्डर का प्रदर्शन हुआ था। दिल्ली के उपहार सिनेमाघर मे ब्लैक मे टिकटे बिकी. इतनी की सीटे कम पड गयी. संदेशे आते हैं संदेशे जाते हैं... का दौर शुरू हुआ. हर सीन मे जीभर कर लोगो ने तालियां बजायी.सभी खुश थे क्या बालकनी हो क्या फ़र्स्ट क्लास. फ़िल्म क पहला हाफ़ खत्म हुआ.यही कोइ १५ मिनट क ब्रेक और फ़िर से लोग अपनी अपनी सीटों पर आ जमे. परदे की अवास्तविक हलचल का रोमांच लोगो के सिर चढकर बोल रहा था.दूसरा हाफ़ अभी शुरू ही हुआ था कि अचानक परदे पर फ़ट रहे बम के धमाको का धुआं लोगो के आसपास छाने लगा.इससे पहले कि लोग कुछ समझ पाते एक कोने से आवाज गूजी. आग लग गयी आग. दो शब्द ना हुये मौत का फ़रमान हो गये. परदे पर टिकी आंखे अंधेरे मे दरवाजो को तलाशने लगी.तालिया बजाते हुये हाथ रुके और कदमो से दो कदम आगे दौड पडे. हजारो की भीड और सबकी एक ही मंजिल दो बंद दरवाजे. अंधेरे मे ना कुछ दिखाइ दे रहा था ना अफ़रातफ़री मे कुछ सुझाइ दे रहा था. बस अपने आगे वाले को पीछे करने की होड़ सी थी.

परदे पर जब फ़िल्म चल रही थी और जब जवान शहीद हो कर गिर रहे थे. देशभक्ति का उबाल सा उठता था. और अब आलम ये था कि वही लोग कितने लोगो को अपने पैरो तले कुचलकर भागे जा रहे थे.धुआं घना हो रहा था. दम घुट रहा था.एक सांस जाती तो लगता था कि दूसरी आयेगी भी या नही. हर तरफ़ बस चीखे थी, खौफ़ था. आखिर हुआ क्या है किसी को नही पता था. किसी ने कहा बम फ़टा है. किसी ने कहा जहरीली गैस है. सोचने का वक्त किसी के पास नही था. ना ही सुनने का.फ़र्स्ट क्लास से लेकर बालकनी तक एक ही मंजर था. जो लोग सपरिवार थे अब स-प-रि-वा-र थे. और यह जरा सी दूरी हर धक्के के साथ बढती जा रही थी . इतनी कि आवाजे भी दगा दे गयी इन्हे भरने मे.अब तक एक विशाल कमरे मे कैद हजारो जाने बाहर जाने के रास्तो पर जुटी पडी थी. दरवाजे तक जो सबसे पहले पहुचे उन्होने पाया कि दरवाजो के आगे सीटों का जमावडा है.अब क्या था कुछ ने सीटे हटानी शुरू की थी कि कुछ लोग इसी बीच सीटो पर चढ गये. जो दरवाजे तक नही पहुच पा रहे थे. खांस खांस कर उनका बुरा हाल था, मुह मे कब तक हाथ रखकर हवा को छानते, रूमाले भी कब तक उनका साथ देती . आखिर हौसले जवाब देने लगे. जिस्म बेजान हो कर गिरने लगे. जो गिरा वो पूरा खडा नही हो पाया. उसे सहारा नही मिला .उसने आखिरी सांस कब ली उसे भी पता नही चला.

उधर बाहर क्या हो रहा था किसी को नही पता था. सब बस यही सोच रहे थे कि मदद आयेगी वे निकल जायेगे. लेकिन बाद मे पता चला इन सब मे ५९ लोग शामिल नही हो पाये. जिन्दगी की बार्डर वे छू नही पाये.तकरीबन १०९ लोग कब किस अस्पताल मे पहुचे ये उन्हे पूरी तरह होश से आने के बाद पता चला.घर पहुचने के बाद भी अगले कुछ दिन लोग हादसे के सदमे से उबर नही पाये. अगले दिन हर तरफ़ खबरो का बाजार गर्म था. हकीकत धीरे धीरे खुली.शार्ट शर्किट की वजह से आग लगी. भीड तादाद से कही ज्यादा थी. और उसे संभालने की कि व्यवस्था हो भी नही सकती थी क्योकि बाद मे पता चला घटना के तुरंत बाद कि मैनेजर अपना कैश संभाल रहे थे. उनसे ऐसी उम्मीद करना तो खुद से बेइमानी करना होगा.

सिनेमा घर मे घटा यह हादसा कितनो के लिये कभी ना भुलायी जा सकने वाली याद बन गया. कितने घर उजड गये. आखिरकार सिनेमा घर के मालिको अंसल बंधुओं सहित १६ लोगो पर मुकदमा दर्ज हुआ। अदालत कि कार्यवाही शुरू हुई। गवाह पेश किये गये। सुबूत जुटाये गये। पूछ्ताछ हुई। पुलिस की छानबीन हुई। इन सब मे १० साल लग गये । इस बीच ४ आरोपी तो अपना जीवन भरपूर जीकर गुड्बाय कह गये। अब बचे १२ जिनके भाग्य का फ़ैसला केस की फ़ाइलो मे बंद था।

ये फ़ाइले खुलती रही और बंद होती रही। तारीख पर तारीख , तारीख पर तारीख का शोर खुद को दोहराता रहा. आखिर्कार इस घतना चक्र को पूरा होने का दिन आया.तारीख २३ नवंबर २००७. पटियाला कोर्ट ने ऐतिहासिक सजा सुनायी. दस साल पहले जिन घरो से चिराग छिने थे. जहा जहा मातम ने दस्तक दी थे.वहा लोगो के घरो मे दरवाजे खुले. हर निगाह टी वी सेट पर चिपक गयी. कान बस इंसाफ़ सुनना चाहते थे. जिन आंखो से दर्द के आंसू बहकर सूख चुके थे. वे एक बार फ़िर छ्लछ्लाना चहती थी लेकिन इस बार खुशी से. और वो घडी़ भी आयी.---

इंसाफ़ बोला - अंसल बंधुओं को लापरवाही बरतने, उचित इंतजामात न करने के आरोप मे दफ़ा ३०४ ए के तहत २-२ साल की सजा. (यानी हर मौत के बदले १३ दिन की सजा) इनके साथ ३ अन्य को २-२ साल. और सात को ७-७ साल की सजा दी जाती है. इंसाफ़ बोल कर चुप हो गया. उसकी आवाज बहुत कमजोर थी ऐसा लग रहा था जैसे इतने सालो तक इंतजार करने के दौरान उसे भूखा रखा गया हो, बहुर जुल्म ढाये गये हो. वह ढंग से खडा भी नही हो पाया था कि तभी एक बुलंद आवाज आयी - अंसल बंधूओं को २५००० के मुचलके पर जमानत मिली. इंसाफ़ भरभरा कर गिर पडा. लोग चीख रहे थे चिल्ला रहे थे. कह रहे थे इंसाफ़ के साथ तो सरेआम बलात्कार हो गया . और हम खडे तमाशा देखते रह गये.

जो दरवाजे इंसाफ़ के स्वागत मे खुले थे,एक धमाके के साथ बंद हो गये. अब कोइ उम्मीद नही थी. सजा का फ़ैसला हो चुका था.५९ मौतो की कीमत चुकायी जा चुकी थी. एक बार फ़िर घिसा पिटा इतिहास खुद को दोहरा रहा था. बस फ़र्क इतना है कि हम पहली बार इसके चश्म्दीद गवाह बन रहे हैं.

गुरुवार, 22 नवंबर 2007

क्या आप अपने काम से खुश हैं ?

बडा ही रोचक सवाल है यह कभी फ़ुरसत मिले तो खुद से पूछ कर देखिये . मेरा अनुमान है अधिकतर लोगो क जवाब या तो ५०-५० या फ़िर पता नही होगा. ना पूरी तरह से हां ना पूरी तरह से ना . क्या करे मजबूरी है अगर ना किया तो अगला सवाल मुंह बाये खडा हो जायेगा . फ़िर आप ये काम कर ही क्यो रहे है ? अगर हां किया तो भी सवाल तो नही पर अपके जवाब पर एक प्रश्न्चिन्ह लग जायेगा कि खुश है तो हर दूसरे दिन काम से लौटने के बाद मूड क्यो आफ़ रहता है? या फ़िर अक्सर ये क्यु कहते रहते हो कि यार इससे अच्छा तो कोइ और काम कर लेता. वो क्या है ना कि ये कुछ ऐसे जुमले है जो चहे अनचाहे जुबान पर आ ही जाते हैं. और अये भी क्यु ना आखिर आज तक कोइ भी ऐसा आफ़िस बना ही नही हैं, जहा काम करने वाले लोग हर दिन खुश रह सके. सबकी अपनी अपनी परेशानियां है, कोइ अपनी प्रोफ़ाइल से खुश नही है, कोइ किसी की तरक्की से खुश नही है. कोइ महौल से खुश नही है, तो कोइ तन्ख्वाह से खुश नही है. लेकिन चमत्कार देखिये इतना सब होने के बाद भी लोग काम किये जा रहे है . अब जरा एक नजर डालते है .. इस असंतुष्टि के कारणो पर...
१. जो सबसे महत्व्पूर्न वजह है वह यह है कि अक्सर हम जिस काम कि शुरुआत करते है वह पहले तो अपनी नवीनता और हमारी पसंद होने के कारण अच्छा लगता है . लेकिन वक्त के साथ वह अपना चार्म खोने लगता है.रोज का वही काम वही फ़ाइले वही लोग. अरे भाइ आप शोले भी दस बार देखेगे तो ग्यारह्वी बार पूरे ३ घण्टे बैथ कर नही देखना चाहेगे बल्कि बस अपने पसंदीदी सीन ही देखेगे.
२. कुछ लोग इसलिये अनचाहा काम करते है क्योकि वे कुछ और करने का जोखिम नही उठाना चाहते. उनके लिये जो है जैसा है वही बहुत है वाला जीवन दर्शन लागू होता है.
३. आर्थिक सुरक्शा- सबसे अधिक मात्रा मे पाया जाने वाला कारण यही है.इसका ग्रफ आज भी y-axis के पैरल है. आखिर जीवन की गाडी खीचने के लिये ईधन भी तो चाहिये और उसके लिये जेब का गर्म होना बाकी किसी भी चीज से ज्यादा मायने रखता है.
४. पढाइ लिखाइ के बाद कई बार लोग असमंजस मे पड जाते है कि करे तो क्या करे.जब कुछ सुझाई नही देता तो अपने आसपास देखना शुरू करते है. और पाते है कि उनके मित्र तो [इस]काम मे बडी तरक्की पा रहे है तो क्यो ना चलो हम भी [यह]काम कर ले.
५. सुझाव - यह एक ऐसी चीज है जो बिना मांगे और हर विषय पर मुफ़्त मिलती है.क्या घर वाले दादा जी हो.दूर वाले मौसा जी.या पडोस के मिश्रा जी. आपके लिये क्या अच्छा होगा यह उनसे बेहतर भला कौन जान सकता है. तो बेटा यह कर लो बहुत काम अयेगा. पर आने वाला कल किसने देखा है.लोग भी यही सोचते है कि यार ऐसे हाथ मे हाथ रखकर बैठने से तो अच्छा है कि यही कर लिया जाये. और जुट जाते है.

इसलिये दोस्तो अगर आप भी इनमे से किसी का शिकार हो तो एक काम करिये.जो भी खाली समय मिले उसमे किसी दिन कापी पेन लेके बैठिये और याद करिये कुछ ऐसी चीजे जिन्हे आप कभी अपना पैशन मानते थे.लेकिन उपरोक्त मे से एक वजह के चलते कभी उस पर ध्यान नही दे पाये.उसे करना शुरू करिये . बात मानिये आप अपने काम को तो नही बदल पायेगे लेकिन हा उसे बेहतर ढंग से जरूर कर पायेगे. एक समय सीमा निर्धारित करिये और फ़िर देखियेगा हर दिन आप उसका बेसब्री से इन्तजार करेगे. और इन अंतराल मे आप कुछ भी करेगे उसमे एक नयी ऊजा का अनुभव पायेगे.यह एक प्राक्रतिक श्रोत है बस फ़र्क इतना है कि हम इस पर पूरे मन से कभी विश्वास नही कर पाते.क्योकि इतने दिनो तक अनचाहे काम की मार सहने के बाद यह सब स्वप्न सा जान पड़्ता है. मन कुछ नया करने को तैयार ही नही हो पाता. मन की बात छोडिये एक बार ही सही स्वपन से नाता जोडिये.

[*अगर कोइ और वजह आपके पास है तो क्रपया उसे यहा हमारे अन्य पाठक मित्रो के साथ बांटिये.]

मंगलवार, 20 नवंबर 2007

विवाह संस्था - क्यो ?

शादी क्यो की जानी चाहिऐ इसका ऐसा कोई सार्वजनिक जवाब नही है जो एक साथ धरा के प्रत्येक मानुष को संतुष्ट कर सके. शदी कि अवधि कितनी होनी चाहिये इसका भी कोइ तय समय निर्धारित करना संभव नही है. इस पंक्ति पर कई लोग आंखे सिकोड़ सकते हैं.पर वो क्या है ना यह प्रश्न मैने इसलिये किया की आज के समय मे भी अगर कोइ इस बात पर यकीन करता है कि यह बंधन तो स्वर्ग मे बनता है और ताउम्र के लिये बानता है.तो मै बस इतना ही कहूगा ऐसा है तो भला यह अटूट दोर एक दश्तखत मात्र से क्यो टूट जाती है.सात जन्मो के लिये बना यह रिश्ता सात महीनो और सात हफ़्तो मे क्यो टूटने लगा है?
शादी सिर्फ़ घर बसाने या पीढियो को आगे बढाने के लिये नही की जाती. नाही परिणय दो जिस्मो के लिये आवश्यक मिलन का संधिस्थल है. बल्की इन सब से कही आगे है.हमारे समाज की सबसे बडी संस्थाओ मे से एक विवाह की स्पस्ट परिभाषा से मै अपरिचित हू.हा जहा तक मैने समझा है वह यह है की पुरुष और स्त्री दोनो के लिये यह संबंध स्व्यं मे विशिष्ट है. इसे प्राक्र्तिक वजह कहे या पुरुष का सदियो से संचित किया हुआ दंभ ,वह किसी भी तरह के बंधन को अस्वीकार करता है.सवच्छंद जीवन जीने की कामना उसमे सर्वाधिक होती है. वह शादी का बंधन तभी स्वीकार करती है जब वह अपनी अजादी से परेशान हो जाता है. यह सच है की आजादी मे सुकून होता है लेकिन अगर इसमे नाम्मात्र का भी दखल ना हो तो वक्त के साथ इसकी वकत ही पता नही चलती.और इसकी जरूरत ही खत्म हो जाती है. मेरा मानना है -अत्यधिक स्वतंत्रता अस्थिरता को जन्म देती है.और इसिलिये पुरुष अपनी अस्थिरता को कम करने एवंम स्थिरता की तलाश ,मे शादी को स्वीकार करता है.शायद यही वजह रही है कि समाज मे विवाहित पुरुष अधिक जिम्मेदार समझे जाते है क्योकि वे कही ना कही इस सच को स्वीकार कर चुके होते हैं. इसके अलावा भी कई वजहें हो सकती है मसलन -समाज द्वारा शारीरिक संबंधों को मंजूरी मिलना,जीवन क व्यवस्थित होना,पारिवारिक खुशी मिलना,और आखिर किसी के लिये खुशी खुशी हर रोज आफ़िस में काम करने की वजह मिल जाना.
अब बात करे दूसरे पक्श की यानी स्त्री की। एक स्त्री के लिये समाज ने यकीनन कई तरह के आदर्श और नियमो की फ़ेहरिश्त बना रखी है। जो की बचपन से ही किसी ना किसी ताह उनके दिलो दिमाग मे भर दिये जाते हैं। सुन्दर राज्कुमार के साथ सफ़ेद घोडे मे बैथकर सात समंदर की यात्रा करने क लावा भी आज शादी का रिश्ता कै मायनो मे स्त्री के लिये महत्व्पुर्ण है। एक ऐसा रिश्ता जो रिश्तो के नाम बदल देता है,जो उस्का घर बदल देता है, उसकी पहचान बदल देता है। यकीनन वर से कही ज्यादा मायने रखता है शादी का बंधन एक वधू के लिये।स्त्री प्रक्रति कि सबसे धैर्य्वान क्रति है।और इसके धैर्य के परिक्शा ताउम्र ली जाती है ।समाज मे स्त्री को उसके चरित्र के आधार पर परखा जाता है।यही वजह है कि बचपन के दहलीज के पार निकलते ही किशोरी मन स्वयं के प्रति सतर्क हो जाता है।दूस्रो की नजरो से खुद को छुपाती नजरे जमाने भर कि तहजीबो क बोझ ढोते ढोते झुक कर रह जाती है।इन बंधनो से आजाद होने का माध्यम बनकर आता है शादी का रिश्ता।उसके लिये जीवनसाथी मात्र एक साथ एक छ्त के नीचे रहने वाला शख्स नही होता,वह उसक ’सब कुछ’ होता है।जिसके लिये वह अपना सर्वस्व न्यौछावर करती है। जिसकी खुशी मे वह अपनी खुशी तलाश करती है।
एक सवाल ऐसे मे मन मे बार बार उठता है कि जब एक स्त्री पुरष को अपना स्वीकार करती है तब उसके जहन मे कहां क्या चल रहा होता होगा?वह कैसे फ़ैसला करती है कि किसे उसे छूने का हक दिया जाये और क्यो ? सारी उम्र जिस कौमर्य को वह बचाकर रखती है उसे अपर्ण करने से एक पल पूर्व उसकए मन मे क्या चलता होगा ?कि यही है इस जीवन मे मेरा सब कुछ,इस जन्म जो भी सुख दुख उठाने है इसी के साथ। हर दीवाली हर होली हर चौथ इनही हाथो के साथ मनेगी। क्या कुछ ऐसा। पता नही लेकिन यकीनन यह एक ऐसी उलझन है जिसे कम से कम ना शादी से पहले ना शादी के बाद पुरुष को नही सुलझाना पड़्ता।समाज मे पुरुष स्त्री दोनो को अपने अपने अधिकार प्राप्त है।लेकिन वास्तविकता मे जिसकी लाठी उसकी भैस वली कहावत हर जगह लागू होती है।शादी भी इससे अलग नही है।स्त्री इस बात से भली भाति वाकिफ़ है शायद इसीलिये वह यह फ़ैसला बस एक बार हि करना पसंद करती है।और फ़िर सारी जिन्दगी अपने फ़ैसले पर अड़ी रहती है। काश कि इस रिश्ते क दूसरा पहलू पुरुष भी इतना निश्छल और शीलवान होता।तब शादी कभी भी समौझाता नही बनती ।और सही मायनो मे जन्म जन्मांतर का रिश्ता बन पाती.

सोमवार, 19 नवंबर 2007

रिश्तो की बदलती परिभाषा

कभी कभी रिश्ते बंधन बनकर रह जाते है.रिश्ते जो हमारे अपने होते है,जिन्के साथ हम अपना बचपन गुजारते है.जिनके साये तले हम जिन्दगी की A B C D सीखते है.यही रिश्ते एक दिन अचनाक स्वार्थी नजर आने लगते है.उनसे खुद्गगर्जी की बू आने लगती है. क्या अजीब बात है ना जिनके संग बगैर कभी सारी दुनिया बेगानी लगती थी. एक वक्त पर उनकी आहत पाकर मन कसैला हो जाता है.लेकिन क्या करे आदमी क स्वभाव ही कुछ ऐसा है.जो रिश्तो की परिभाषाये अपने अनुसार बदलता रहता है.
आखिर समस्या है कहा पर ?इस विरोधाभास कि जड़ कहां है ? रिश्ता जब नवजात होता है तब रंगहीन पानी की तरह साफ़ होता है वक्त के साथ इसमे इच्छओं उम्मीदों मजबूरियों और बंदिशों का रंगीन घोल मिलता जाता है. और एक दिन इस घोल के आर पार देखना असंभव हो जाता है. उम्र बढती है संबंधों का दायरा बढता है. सोच बढती है और एक समय ऐसा आता है कि हर रिश्ता बराबरी क हक मांगने लगता है. और जब उम्रदराज रिश्ते इसे अपनी तौहीन मान्कर हक देने से इन्कार कर देते हैं तो युवा रिश्ते बगावत कर अपना हक छीनने की कोशिश करते है. यही से शुरू होता है रिश्तो का दमनचक्र. यही से पनपता है विरोधाभास . इन्सान के पास एक दिव्य शक्ति है ,वह स्वयं को सही साबित करने के लिये कल्पनीय अकल्पनीय लेखित अलिखित बातो के पुलिन्दे मे से कोइ ना कोइ रास्ता तलाश ही लेता है. और चुकी भगवान की नजर मे सब एक है इस्लिये यह शक्ति सबको बराबर मात्र मे मिली है. बस फ़र्क इस बात क रहता है कि आपके स्म्रतिकोष मे कितन संग्रहण है. विचारो की इस टकराहट क परिणाम व्यक्तिदर व्यक्ति बदलता रहता है.कही बिगडता है तो कही संतुलित हो जाताहै.लेकिन अक्सर पहले वाला घटनाक्रम हि दोहराया जाता है.उसकी वजह है क्युकी यहा इस दुनिया मे हमेशा से यही होता रहा है.....ताकतवर कमजोर को दबाता रहा है. अनुभव उम्मीदो को दबाता रहा है.और साहस को समाज दबाता रहा है.

रविवार, 18 नवंबर 2007

समाज - कुछ अल्पना कुछ कल्पना

पता नही कब से लेकिन बहुत पहले से मेरे मन मे समाजिक तानेबाने को लेकर उत्सुकता रही है. हर घर मे एक अलग हि समाज पनपता है.एक नयी दुनिया. तभी तो किसी के घर मे जाओ तो लगता हि नही कि ये वही दुनिया है जहा हम रहते है.ड्राइ॒ग रूम के आगे कि जगह मे क्या होगा . क्या इस घर मे भी जो कमरे है वो मेरे घर के कम्रो जित्ने हि बदे होगे.क्य वहा भी खिडकियो पर परदे होगे. एक जगह बैथकर भी आखे यही तलशती रहती थी. बचपन की वह आदत आज भी बदस्तूर जारी है और मै तो कहुगा कि पहले से कही ज्यादा तीव्र हो गयी है. अब तो सोच का दायरा दीवारो के आगे मान्वीय रिश्तो , रीति रिवाजो और धर्मो की सरहदो को पार कर गया है. इन सबके चलते यह भरा पूरा समाज कभी तो विविध रंगो से रगी अल्पना सा खूब्सूरत नजर आता है और कभी मात्र किसी स्वार्थ वश हमारे द्वारा सोची गयी कल्पना लगता है। बहरहाल हो कुछ भी अपने इस ब्लोग के जरिये मै चाहुगा कि अधिक से अधिक लोगो से मै जुद सकू और अपने इस भ्रम को दूर कर सकू। एक तलाश जो अभी जारी है उसे पूरी कर सकू।