मंगलवार, 20 नवंबर 2007

विवाह संस्था - क्यो ?

शादी क्यो की जानी चाहिऐ इसका ऐसा कोई सार्वजनिक जवाब नही है जो एक साथ धरा के प्रत्येक मानुष को संतुष्ट कर सके. शदी कि अवधि कितनी होनी चाहिये इसका भी कोइ तय समय निर्धारित करना संभव नही है. इस पंक्ति पर कई लोग आंखे सिकोड़ सकते हैं.पर वो क्या है ना यह प्रश्न मैने इसलिये किया की आज के समय मे भी अगर कोइ इस बात पर यकीन करता है कि यह बंधन तो स्वर्ग मे बनता है और ताउम्र के लिये बानता है.तो मै बस इतना ही कहूगा ऐसा है तो भला यह अटूट दोर एक दश्तखत मात्र से क्यो टूट जाती है.सात जन्मो के लिये बना यह रिश्ता सात महीनो और सात हफ़्तो मे क्यो टूटने लगा है?
शादी सिर्फ़ घर बसाने या पीढियो को आगे बढाने के लिये नही की जाती. नाही परिणय दो जिस्मो के लिये आवश्यक मिलन का संधिस्थल है. बल्की इन सब से कही आगे है.हमारे समाज की सबसे बडी संस्थाओ मे से एक विवाह की स्पस्ट परिभाषा से मै अपरिचित हू.हा जहा तक मैने समझा है वह यह है की पुरुष और स्त्री दोनो के लिये यह संबंध स्व्यं मे विशिष्ट है. इसे प्राक्र्तिक वजह कहे या पुरुष का सदियो से संचित किया हुआ दंभ ,वह किसी भी तरह के बंधन को अस्वीकार करता है.सवच्छंद जीवन जीने की कामना उसमे सर्वाधिक होती है. वह शादी का बंधन तभी स्वीकार करती है जब वह अपनी अजादी से परेशान हो जाता है. यह सच है की आजादी मे सुकून होता है लेकिन अगर इसमे नाम्मात्र का भी दखल ना हो तो वक्त के साथ इसकी वकत ही पता नही चलती.और इसकी जरूरत ही खत्म हो जाती है. मेरा मानना है -अत्यधिक स्वतंत्रता अस्थिरता को जन्म देती है.और इसिलिये पुरुष अपनी अस्थिरता को कम करने एवंम स्थिरता की तलाश ,मे शादी को स्वीकार करता है.शायद यही वजह रही है कि समाज मे विवाहित पुरुष अधिक जिम्मेदार समझे जाते है क्योकि वे कही ना कही इस सच को स्वीकार कर चुके होते हैं. इसके अलावा भी कई वजहें हो सकती है मसलन -समाज द्वारा शारीरिक संबंधों को मंजूरी मिलना,जीवन क व्यवस्थित होना,पारिवारिक खुशी मिलना,और आखिर किसी के लिये खुशी खुशी हर रोज आफ़िस में काम करने की वजह मिल जाना.
अब बात करे दूसरे पक्श की यानी स्त्री की। एक स्त्री के लिये समाज ने यकीनन कई तरह के आदर्श और नियमो की फ़ेहरिश्त बना रखी है। जो की बचपन से ही किसी ना किसी ताह उनके दिलो दिमाग मे भर दिये जाते हैं। सुन्दर राज्कुमार के साथ सफ़ेद घोडे मे बैथकर सात समंदर की यात्रा करने क लावा भी आज शादी का रिश्ता कै मायनो मे स्त्री के लिये महत्व्पुर्ण है। एक ऐसा रिश्ता जो रिश्तो के नाम बदल देता है,जो उस्का घर बदल देता है, उसकी पहचान बदल देता है। यकीनन वर से कही ज्यादा मायने रखता है शादी का बंधन एक वधू के लिये।स्त्री प्रक्रति कि सबसे धैर्य्वान क्रति है।और इसके धैर्य के परिक्शा ताउम्र ली जाती है ।समाज मे स्त्री को उसके चरित्र के आधार पर परखा जाता है।यही वजह है कि बचपन के दहलीज के पार निकलते ही किशोरी मन स्वयं के प्रति सतर्क हो जाता है।दूस्रो की नजरो से खुद को छुपाती नजरे जमाने भर कि तहजीबो क बोझ ढोते ढोते झुक कर रह जाती है।इन बंधनो से आजाद होने का माध्यम बनकर आता है शादी का रिश्ता।उसके लिये जीवनसाथी मात्र एक साथ एक छ्त के नीचे रहने वाला शख्स नही होता,वह उसक ’सब कुछ’ होता है।जिसके लिये वह अपना सर्वस्व न्यौछावर करती है। जिसकी खुशी मे वह अपनी खुशी तलाश करती है।
एक सवाल ऐसे मे मन मे बार बार उठता है कि जब एक स्त्री पुरष को अपना स्वीकार करती है तब उसके जहन मे कहां क्या चल रहा होता होगा?वह कैसे फ़ैसला करती है कि किसे उसे छूने का हक दिया जाये और क्यो ? सारी उम्र जिस कौमर्य को वह बचाकर रखती है उसे अपर्ण करने से एक पल पूर्व उसकए मन मे क्या चलता होगा ?कि यही है इस जीवन मे मेरा सब कुछ,इस जन्म जो भी सुख दुख उठाने है इसी के साथ। हर दीवाली हर होली हर चौथ इनही हाथो के साथ मनेगी। क्या कुछ ऐसा। पता नही लेकिन यकीनन यह एक ऐसी उलझन है जिसे कम से कम ना शादी से पहले ना शादी के बाद पुरुष को नही सुलझाना पड़्ता।समाज मे पुरुष स्त्री दोनो को अपने अपने अधिकार प्राप्त है।लेकिन वास्तविकता मे जिसकी लाठी उसकी भैस वली कहावत हर जगह लागू होती है।शादी भी इससे अलग नही है।स्त्री इस बात से भली भाति वाकिफ़ है शायद इसीलिये वह यह फ़ैसला बस एक बार हि करना पसंद करती है।और फ़िर सारी जिन्दगी अपने फ़ैसले पर अड़ी रहती है। काश कि इस रिश्ते क दूसरा पहलू पुरुष भी इतना निश्छल और शीलवान होता।तब शादी कभी भी समौझाता नही बनती ।और सही मायनो मे जन्म जन्मांतर का रिश्ता बन पाती.

1 टिप्पणी:

सुजाता ने कहा…

आपकी चिंताएँ बहुत वाजिब हैं !
sandoftheeye.blogspot.com