सोमवार, 19 नवंबर 2007

रिश्तो की बदलती परिभाषा

कभी कभी रिश्ते बंधन बनकर रह जाते है.रिश्ते जो हमारे अपने होते है,जिन्के साथ हम अपना बचपन गुजारते है.जिनके साये तले हम जिन्दगी की A B C D सीखते है.यही रिश्ते एक दिन अचनाक स्वार्थी नजर आने लगते है.उनसे खुद्गगर्जी की बू आने लगती है. क्या अजीब बात है ना जिनके संग बगैर कभी सारी दुनिया बेगानी लगती थी. एक वक्त पर उनकी आहत पाकर मन कसैला हो जाता है.लेकिन क्या करे आदमी क स्वभाव ही कुछ ऐसा है.जो रिश्तो की परिभाषाये अपने अनुसार बदलता रहता है.
आखिर समस्या है कहा पर ?इस विरोधाभास कि जड़ कहां है ? रिश्ता जब नवजात होता है तब रंगहीन पानी की तरह साफ़ होता है वक्त के साथ इसमे इच्छओं उम्मीदों मजबूरियों और बंदिशों का रंगीन घोल मिलता जाता है. और एक दिन इस घोल के आर पार देखना असंभव हो जाता है. उम्र बढती है संबंधों का दायरा बढता है. सोच बढती है और एक समय ऐसा आता है कि हर रिश्ता बराबरी क हक मांगने लगता है. और जब उम्रदराज रिश्ते इसे अपनी तौहीन मान्कर हक देने से इन्कार कर देते हैं तो युवा रिश्ते बगावत कर अपना हक छीनने की कोशिश करते है. यही से शुरू होता है रिश्तो का दमनचक्र. यही से पनपता है विरोधाभास . इन्सान के पास एक दिव्य शक्ति है ,वह स्वयं को सही साबित करने के लिये कल्पनीय अकल्पनीय लेखित अलिखित बातो के पुलिन्दे मे से कोइ ना कोइ रास्ता तलाश ही लेता है. और चुकी भगवान की नजर मे सब एक है इस्लिये यह शक्ति सबको बराबर मात्र मे मिली है. बस फ़र्क इस बात क रहता है कि आपके स्म्रतिकोष मे कितन संग्रहण है. विचारो की इस टकराहट क परिणाम व्यक्तिदर व्यक्ति बदलता रहता है.कही बिगडता है तो कही संतुलित हो जाताहै.लेकिन अक्सर पहले वाला घटनाक्रम हि दोहराया जाता है.उसकी वजह है क्युकी यहा इस दुनिया मे हमेशा से यही होता रहा है.....ताकतवर कमजोर को दबाता रहा है. अनुभव उम्मीदो को दबाता रहा है.और साहस को समाज दबाता रहा है.

2 टिप्‍पणियां:

Asha Joglekar ने कहा…

रिश्तों को बिलकुल सही समझा है आपने ।
वक्त के साथ इसमे इच्छओं उम्मीदों मजबूरियों और बंदिशों का रंगीन घोल मिलता जाता है. और एक दिन इस घोल के आर पार देखना असंभव हो जाता है । लेकिन कई जगह भाषाई अशुध्दियाँ खटकतीं हैं ।
उदाहरणार्थ : क्युंकी नही क्यूं कि होना चाहिये ।मान्कर नही मान कर होना चाहिये, स्म्रति नही स्मृति होना चाहिये । आपके लेखनी में शक्ती है । इस लिये यह लिखने की धृष्टता कर बैठी

हेमन्त ’शब्दाश्रित’ ने कहा…

आपकी सोद्देश्य टिप्पणी के लिये शुक्रिया.आपको मेरे विचार अच्छे लगे यह मेरे लिये खुशी की बात है.भाषा की त्रुटियो के लिये मै जरूर प्रयास करूगा.आशा है आगे से ऐसा नही होगा.और आपकी टिप्प्णीया मुझे यु ही मिलती रहेगी.मेरे लिये ये अत्यन्त आवश्यक है ताकी मुझे पता चलता रहे की मेरी दिशा सही है या नही.
धन्यवाद