रविवार, 18 नवंबर 2007

समाज - कुछ अल्पना कुछ कल्पना

पता नही कब से लेकिन बहुत पहले से मेरे मन मे समाजिक तानेबाने को लेकर उत्सुकता रही है. हर घर मे एक अलग हि समाज पनपता है.एक नयी दुनिया. तभी तो किसी के घर मे जाओ तो लगता हि नही कि ये वही दुनिया है जहा हम रहते है.ड्राइ॒ग रूम के आगे कि जगह मे क्या होगा . क्या इस घर मे भी जो कमरे है वो मेरे घर के कम्रो जित्ने हि बदे होगे.क्य वहा भी खिडकियो पर परदे होगे. एक जगह बैथकर भी आखे यही तलशती रहती थी. बचपन की वह आदत आज भी बदस्तूर जारी है और मै तो कहुगा कि पहले से कही ज्यादा तीव्र हो गयी है. अब तो सोच का दायरा दीवारो के आगे मान्वीय रिश्तो , रीति रिवाजो और धर्मो की सरहदो को पार कर गया है. इन सबके चलते यह भरा पूरा समाज कभी तो विविध रंगो से रगी अल्पना सा खूब्सूरत नजर आता है और कभी मात्र किसी स्वार्थ वश हमारे द्वारा सोची गयी कल्पना लगता है। बहरहाल हो कुछ भी अपने इस ब्लोग के जरिये मै चाहुगा कि अधिक से अधिक लोगो से मै जुद सकू और अपने इस भ्रम को दूर कर सकू। एक तलाश जो अभी जारी है उसे पूरी कर सकू।

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