शुक्रवार, 23 नवंबर 2007

उपहार कांड - इंसाफ़ मिला ??

२३ जून १९९७ को जेपी दत्ता की फ़िल्म बार्डर का प्रदर्शन हुआ था। दिल्ली के उपहार सिनेमाघर मे ब्लैक मे टिकटे बिकी. इतनी की सीटे कम पड गयी. संदेशे आते हैं संदेशे जाते हैं... का दौर शुरू हुआ. हर सीन मे जीभर कर लोगो ने तालियां बजायी.सभी खुश थे क्या बालकनी हो क्या फ़र्स्ट क्लास. फ़िल्म क पहला हाफ़ खत्म हुआ.यही कोइ १५ मिनट क ब्रेक और फ़िर से लोग अपनी अपनी सीटों पर आ जमे. परदे की अवास्तविक हलचल का रोमांच लोगो के सिर चढकर बोल रहा था.दूसरा हाफ़ अभी शुरू ही हुआ था कि अचानक परदे पर फ़ट रहे बम के धमाको का धुआं लोगो के आसपास छाने लगा.इससे पहले कि लोग कुछ समझ पाते एक कोने से आवाज गूजी. आग लग गयी आग. दो शब्द ना हुये मौत का फ़रमान हो गये. परदे पर टिकी आंखे अंधेरे मे दरवाजो को तलाशने लगी.तालिया बजाते हुये हाथ रुके और कदमो से दो कदम आगे दौड पडे. हजारो की भीड और सबकी एक ही मंजिल दो बंद दरवाजे. अंधेरे मे ना कुछ दिखाइ दे रहा था ना अफ़रातफ़री मे कुछ सुझाइ दे रहा था. बस अपने आगे वाले को पीछे करने की होड़ सी थी.

परदे पर जब फ़िल्म चल रही थी और जब जवान शहीद हो कर गिर रहे थे. देशभक्ति का उबाल सा उठता था. और अब आलम ये था कि वही लोग कितने लोगो को अपने पैरो तले कुचलकर भागे जा रहे थे.धुआं घना हो रहा था. दम घुट रहा था.एक सांस जाती तो लगता था कि दूसरी आयेगी भी या नही. हर तरफ़ बस चीखे थी, खौफ़ था. आखिर हुआ क्या है किसी को नही पता था. किसी ने कहा बम फ़टा है. किसी ने कहा जहरीली गैस है. सोचने का वक्त किसी के पास नही था. ना ही सुनने का.फ़र्स्ट क्लास से लेकर बालकनी तक एक ही मंजर था. जो लोग सपरिवार थे अब स-प-रि-वा-र थे. और यह जरा सी दूरी हर धक्के के साथ बढती जा रही थी . इतनी कि आवाजे भी दगा दे गयी इन्हे भरने मे.अब तक एक विशाल कमरे मे कैद हजारो जाने बाहर जाने के रास्तो पर जुटी पडी थी. दरवाजे तक जो सबसे पहले पहुचे उन्होने पाया कि दरवाजो के आगे सीटों का जमावडा है.अब क्या था कुछ ने सीटे हटानी शुरू की थी कि कुछ लोग इसी बीच सीटो पर चढ गये. जो दरवाजे तक नही पहुच पा रहे थे. खांस खांस कर उनका बुरा हाल था, मुह मे कब तक हाथ रखकर हवा को छानते, रूमाले भी कब तक उनका साथ देती . आखिर हौसले जवाब देने लगे. जिस्म बेजान हो कर गिरने लगे. जो गिरा वो पूरा खडा नही हो पाया. उसे सहारा नही मिला .उसने आखिरी सांस कब ली उसे भी पता नही चला.

उधर बाहर क्या हो रहा था किसी को नही पता था. सब बस यही सोच रहे थे कि मदद आयेगी वे निकल जायेगे. लेकिन बाद मे पता चला इन सब मे ५९ लोग शामिल नही हो पाये. जिन्दगी की बार्डर वे छू नही पाये.तकरीबन १०९ लोग कब किस अस्पताल मे पहुचे ये उन्हे पूरी तरह होश से आने के बाद पता चला.घर पहुचने के बाद भी अगले कुछ दिन लोग हादसे के सदमे से उबर नही पाये. अगले दिन हर तरफ़ खबरो का बाजार गर्म था. हकीकत धीरे धीरे खुली.शार्ट शर्किट की वजह से आग लगी. भीड तादाद से कही ज्यादा थी. और उसे संभालने की कि व्यवस्था हो भी नही सकती थी क्योकि बाद मे पता चला घटना के तुरंत बाद कि मैनेजर अपना कैश संभाल रहे थे. उनसे ऐसी उम्मीद करना तो खुद से बेइमानी करना होगा.

सिनेमा घर मे घटा यह हादसा कितनो के लिये कभी ना भुलायी जा सकने वाली याद बन गया. कितने घर उजड गये. आखिरकार सिनेमा घर के मालिको अंसल बंधुओं सहित १६ लोगो पर मुकदमा दर्ज हुआ। अदालत कि कार्यवाही शुरू हुई। गवाह पेश किये गये। सुबूत जुटाये गये। पूछ्ताछ हुई। पुलिस की छानबीन हुई। इन सब मे १० साल लग गये । इस बीच ४ आरोपी तो अपना जीवन भरपूर जीकर गुड्बाय कह गये। अब बचे १२ जिनके भाग्य का फ़ैसला केस की फ़ाइलो मे बंद था।

ये फ़ाइले खुलती रही और बंद होती रही। तारीख पर तारीख , तारीख पर तारीख का शोर खुद को दोहराता रहा. आखिर्कार इस घतना चक्र को पूरा होने का दिन आया.तारीख २३ नवंबर २००७. पटियाला कोर्ट ने ऐतिहासिक सजा सुनायी. दस साल पहले जिन घरो से चिराग छिने थे. जहा जहा मातम ने दस्तक दी थे.वहा लोगो के घरो मे दरवाजे खुले. हर निगाह टी वी सेट पर चिपक गयी. कान बस इंसाफ़ सुनना चाहते थे. जिन आंखो से दर्द के आंसू बहकर सूख चुके थे. वे एक बार फ़िर छ्लछ्लाना चहती थी लेकिन इस बार खुशी से. और वो घडी़ भी आयी.---

इंसाफ़ बोला - अंसल बंधुओं को लापरवाही बरतने, उचित इंतजामात न करने के आरोप मे दफ़ा ३०४ ए के तहत २-२ साल की सजा. (यानी हर मौत के बदले १३ दिन की सजा) इनके साथ ३ अन्य को २-२ साल. और सात को ७-७ साल की सजा दी जाती है. इंसाफ़ बोल कर चुप हो गया. उसकी आवाज बहुत कमजोर थी ऐसा लग रहा था जैसे इतने सालो तक इंतजार करने के दौरान उसे भूखा रखा गया हो, बहुर जुल्म ढाये गये हो. वह ढंग से खडा भी नही हो पाया था कि तभी एक बुलंद आवाज आयी - अंसल बंधूओं को २५००० के मुचलके पर जमानत मिली. इंसाफ़ भरभरा कर गिर पडा. लोग चीख रहे थे चिल्ला रहे थे. कह रहे थे इंसाफ़ के साथ तो सरेआम बलात्कार हो गया . और हम खडे तमाशा देखते रह गये.

जो दरवाजे इंसाफ़ के स्वागत मे खुले थे,एक धमाके के साथ बंद हो गये. अब कोइ उम्मीद नही थी. सजा का फ़ैसला हो चुका था.५९ मौतो की कीमत चुकायी जा चुकी थी. एक बार फ़िर घिसा पिटा इतिहास खुद को दोहरा रहा था. बस फ़र्क इतना है कि हम पहली बार इसके चश्म्दीद गवाह बन रहे हैं.

2 टिप्‍पणियां:

Dr. Johnson C. Philip ने कहा…

अच्छा विश्लेषण. लिखते रहें.

फॉँट साईज बढा दें. लेख पेराग्राफ में बांट दें. अधिक पठनीय हो जायगा -- शास्त्री

हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है.
हर महीने कम से कम एक हिन्दी पुस्तक खरीदें !
मैं और आप नहीं तो क्या विदेशी लोग हिन्दी
लेखकों को प्रोत्साहन देंगे ??

हेमन्त ’शब्दाश्रित’ ने कहा…

आपके सुझावो और उत्साह्वर्धन के लिये शुक्रिया. मेरा प्रयास रहेगा कि जब भी कोइ दिल को छू लेना वाला मुद्दा मिला उस पर अपने विचार जरूर लोगो तक पहुचा सकू और उन्के विचारो को भी जान सकू.

प्रयास रहेगा सतत
लिखता रहू अनवरत
मासि जीविका के लिये पत्रकारिता मे रत
लिया है परिवरतन लाने का व्रत

मै चाहता हू कि दूसरो से भी अपना संजाल बढाअ सकू . उसके लिये आपके मार्गदर्शन की आवश्यकता है.